मैं उत्तराखंडी हूँ, और शर्मिंदा भी, क्योंकि राजधानी गैरसैण नहीं बनवा पाया !

बड़े-बूढ़े,बुजुर्ग और बाबा ये चार किरदार हैं जो किसी भी पहाड़ी व्यक्ति को सर झुकाने और उनकी बात मनवाने के लिए दिल से मजबूर कर देते हैं ...ये लोग जमानों से आशीर्वाद देते आए हैं सदा सुखी भवः....लेकिन लोग खुश नहीं हैं  सौभाग्यवती भवः...लोग सौभाग्य तो हैं लेकिन सिंदूर भरने वाले किरदार बदल रहे हैं .... दूधो नहाओ पूतो फलो...दूध नहाने को तो क्या पीने को नहीं मिल रहा है और पूत तब फलेंगे जब हीर-रांझे वाला प्यार बरकरार रहेगा .

ये सिलसिला कई सालों से चला आ रहा है लेकिन आज बात सिर्फ  पिछले सत्रह सालों की करेंगे ...और बात करेंगे सत्ता के बड़े-बूढ़े,बुजुर्ग और बाबा की जो पहले 2 साल यदा फिर अगले 2 साल कदा और आखिरी 1 साल सर्वदा गैरसैण का राग अलापना शुरू करते हैं और मौका देख कर अपने आशीर्वाद का सिलसिला भी जारी रखते हैं । सत्ता के मठाधीश पिछले 17 सालों से ऐसे ही आशीर्वाद थोक के भाव दिए जा रहे हैं और सुना है उसके लिए पार्टी ने अलग से मंडी परिषद् भी बना दिया है।

आज तक उत्तराखंड के सियासी कुंवारे, राजकुमारों,शादीशुदा,बहुपत्नी धारक काबिलियत वालों ने,हर जगह मांग भरा लेकिन जनता ने जिस सपने की राजकुमारी को उत्तराखंड के लिए चुना था उसको मांग भरने की हिमाकत कोई नहीं कर पाया। हालांकि राजकुमारों का प्यार  और कलियुग के राजनैतिक भीष्मपितामाहों का आशीर्वाद आज भी जारी है.. दूधो नहाओ पूतो फलो।

मेहंदी लगे हाथों में मिनी सचिवालय की फाइल, पायल सजाये पैरों में अवस्थापना की महावर लिए हर सरकार अपने नए कार्यकाल को शुरू करने से पहले ये होमवर्क कर लेती है और गैरसैंण की बात पूछने पर सीता की अग्नि परीक्षा की बात कहती नज़र आती है  अरे नेताओं शर्म करो ..कोई तो मर्द बनो जो राजधानी के नाम का  सिंदूर गैरसैण के माथों पर भर सके ...माँ कसम इतिहास में उसका नाम अमर हो जायेगा !

हमने भी चलते फिरते इस बड़े मुद्दे को लेकर बाबा की कुटिया में दाखिल हुए इस उम्मीद से कि फ्यूचर बाबा गैरसैंण के फ्यूचर के बारे में कुछ सटीक भविष्यवाणियां करें। लिहाजा दाखिल हुए और हाथों में मोबाइल थामे सोशल मीडिया में समाधिस्थ खबरों की भभूत तन-मन में समेटे बाबा को प्रणाम किया। बाबा प्रणाम, सदा सुखी भवः बच्चा!

हम तपाक से कह उठे-- बाबा पता नहीं पिछले सत्रह सालों से कोई आशीर्वाद फलीभूत नहीं हो रहा है। अब तो हालात ये हो गई है कि बच्चा लोग सड़क पर उतर गए हैं फिर भी सत्ता माई का दुलार नहीं उमड़ रहा है। न गुड़ मिल रहा है न गुड़ जैसी बात हो रही हैं।

बाबा! वो भी खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं जो 90 के दशक में सड़कों पर उत्तराखंड राज्य के लिए उतरे थे और आज उनकी अगली नस्ल भी सड़क पर उतरी हुई है गैरसैंण के लिए। दादा-बाबा ने तब राज्य के लिए अपना सुख चैन ठुकरा दिया और पोता-बेटा आज राजधानी-राजधानी पुकार रहे हैं।

बाबा बोले-- अलख निरंजन, बच्चा काहे परेशान हो रहे हो, ई तो सब सियासी माता की माया है, उसका भेद आज तक कोई नहीं भांप पाया है। माता की जब कृपा होगी सारे आशीर्वाद एक झटके में अपना रंग दिखा देंगे। माता पहले प्रसन्न तो हो!

 अभी तो आदोंलनों की पूजा चल रही है, हवनकुंड सजाया जा चुका है और खवाबों की भभूती रहा है, मुद्दों के मंत्र जब आंदोलनकारी पंडित फूकेंगे जब उनके सही उच्चारण से देवभूमि के नर-नारियों को हृदय परिवर्तन होंगे और राजधानी गैरसैंण हर शख्स की आत्मा में अवतरित होगी। पहाड़ से लेकर मैदान तक उसका मतलब समझ में आएगा।

जब नया परीसीमन होगा और कई पहाड़ी सीटें आबादी  के आभाव में बड़ी-बड़ी हो जाएंगी इत्ती बड़ी कि पूरे पिथोरागढ़ जिले, पूरे चमोली जिले समूचे पौडी जिले और टिहरी, उत्तरकाशी जिले का एक ही विधायक होगा। जबकि देहरादून में, ऋषिकेश, रानीपोखरी, भानियावाला, डोईवाला, बालावाला, धर्मपुर, अपर राजीव नगर, लोअर राजीव नगर, कारगी चौक, बंजारावाला और इसी तरह सिर्फ10- पंद्रह मुहल्लों का एक विधायक होगा।

शहरों में पानी, सड़क, पार्किंग, यातायात, अस्पताल की भीड़, कोई एक बीमारी 24 घंटे के भीतर पूरे विधानसभा क्षेत्र को चपेट में ले लेगी, जब कंकरीट की फसल उगाते देहरादून के खेतों में बरसात का पानी पक्के घरों के फर्श से निकलकर सड़कों पर बहता हुआ रिस्पना और बिंदाल के किनारों को बहाकर ले जाएगा। त्राहिमाम की पुकार मचेगी और उनकी नजायज दारूण पुकार से दिल्ली का सिंहासन डांवाडोल हो उठेगा।

साल 2013 की केदार आपदा की तरह जब देश-दुनिया की मीडिया इधरवाली सत्ता माई की अनदेखी, बेरुखी पर जमकर लिखेगी, तब गुरूर से सुशोभित, सहूलियतों के आसन में विराजमान देहरादून की सत्ता माई की निद्रा टूटेगी।

फिर सत्ता माई किसी सियासी महानुभाव में अवतरित होगी और तब सुलगे हुए हवनकुंड में आश्वासनों की आहुति दी जाएगी। हो सकता है बच्चा कि तब तक बात इतनी बिगड़ जाए कि सत्ता माई के शिखर सपूत गैरसैंण से इंकार न कर पाएं और मजबूरन गैरसैण को सदा सुहागन का आशीर्वाद भी देना पड़े और उसे मजबूरियों में सुहागन सा सजाना भी पड़ जाए।

बच्चा तब हर आशीर्वाद फलीभूत होंगे। सब्र रख अधीर न बन,बेशक चाहे कहा गया हो "देर से मिला न्याय भी अन्याय के समान होता है।"

 

बाबा ये सब एक साँस में बोलते हुए अचानक उठे और बोला बेटा मैं अब क्या बोलू बस यही कह सकता है हर उत्तराखंडी इस बात को समझ ले और मान ले

 मैं उत्तराखंडी हूँ और शर्मिंदा हूँ क्योंकि राजधानी गैरसैण नहीं बनवा पाया !

तब जाकर शायद उसकी आत्मा जागेगी और शायद कुछ हो पायेगा.

फिर बाबा चले गये अपनी कुटिया के अन्दर लेकिन जाते जाते एक ज्ञान दे गये आप लोग भी समझ गये होंगे.

धन्यवाद उत्तराखंडी भाइयों और बहनों

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