कब बदलेगा नसीब मेरे उत्तराखंड का !

मुद्दों पर उतराखण्ड में काम क्यों नहीं होता? उत्तराखंड में राज्य बनने के 18 साल में प्रवेश कर जाने के बाद मुद्दों पर उतराखण्ड की सरकारें असफल रही हैं। मन में जिज्ञासा होती है कि ऐसा क्यों। पर खोजने की कोशिश करता हूं तो लगता है उत्तराखंड के लोग रातों रात अमीर बनने का सपना देखते हैं। हर क्षेत्र में मीडिएटर की भूमिका में लोग नजर आते हैं। गांव जल जंगल जमीन के मुद्दों के बजाय देहरादून में 2%के जमीन के खेल में अधिकांश लोग लिप्त हैं। देखता हूँ और पुछता हूँ तो मुलाकात से 90%लोग जमीनों के काम में हें। पलायन भी कारण है। उत्तराखंड मैं नेताओं ने पहाड़ के बजाय मैदानों का रुख कर खुद को भी पहाड़ से पलायन कर देहरादून और अनेक जगहों पर कोठियों बनाने का शौक प्रवान चढ़ा। राजनीति का चश्का बड़ा खराब है। अपने को अपने उत्तराखंड के नेताओं ने लुटा। इसमें कोई शक और दोहराया नहीं है। लेकिन असली मुद्दों पर किसी भी पहाड़ी मुख्यमंत्री और जनप्रतिनिधियों ने काम नहीं किया। उसका एक कारण यह भी है कि उत्तराखंड की राजनीति में आका लोग दिल्ली और देहरादून में डेरा डाल कर कार्य करते रहे हैं। पहाड़ की जड़ों में मठा डालने का काम दोनों दलों ने खुब किया। पर पहाड के लोगों को सिर्फ वोट बैंक के तौर पर प्रयोग किया जाता है। लेकिन पहाड़ का ब्यक्ति भी वोट के इन्हीं दलों के साथ जाता रहा है। पहाड़ के लोगों को मनरेगा ने बर्बाद कर दिया। जो लोग खेती बाड़ी करते थे उन्होंने ने भी अपने खेत बंजर कर दिए। बात मुद्दों को लेकर जमीन पर आने की कोशिश और क्षमताओं वाला कोई भी क्षेत्रीय नेता कहीं दूर तक फिलहाल दिखाई नहीं देता। कुकुरमुतों की तरफ उत्तराखंड में कई पार्टियों रजिस्ट्रड हैं। लेकिन पहाड़ों और भावनात्मक सोच के साथ कोई भी पार्टी उत्तराखंड के हित में नहीं दिखाई देती है। राज्य गठन के बाद कुछ ही जनप्रतिनिधियों ने उत्तराखंड को जमकर लुटा और लुफ्त उठाया। लेकिन मुद्दों पर जाने की किसी ने भी जहमत नहीं की। रोजगार के नाम पर भी उतराखण्ड के लोगों के साथ दुर्व्यवहार और छलावा किया जाता रहा है। हर धंधे में दलाली में चाटुकार देहरादून में फिल्डिंग सजा कर नेताओं की अयाशी से लेकर सभी कामों में उनके दलाल लोगों को दलदल मैं फंसा कर अपने स्वार्थ को पुरा करने में सफल होते रहे हैं। मुद्दों पर फिर भी नहीं पंहुच पाए। स्वरोजगार के नाम पर जितने भी विकल्प थे पहाडो़ में सब कुछ तो बैन हो गया तो आखिर पलायन क्यों ना हो?? 
सरकार हर मंच के माध्यम से कहती है कि युवा अपने लिए स्वरोजगार का विकल्प ढूंढें व पहाड़ वापस लौटें। आखिर सरकार स्वरोजगार के नाम पर युवाओं से सिर्फ यही उम्मीद लगाए बैठी है कि हर युवा फल-सब्जी उगाये जो कि मुमकिन नहीं। पहाड़ों में वाटर स्पोर्ट्स और एडवैंचर से कई घर की रोजी-रोटी चल रही थी हाई कोर्ट के एक ओर्डर ने सब बंद कर दिया और हमारी सरकार ने स्टे मांगकर नियमावली बनाने तक का वक्त नहीं मांगा। ऐसे में रिवर्स माइग्रेशन की उल्टी गंगा तो बहेगी। समय और बक्त बदल चुका है। नेता नहीं चाहते हैं मुद्दों पर चर्चा और बात की जाए लेकिन जो पहाड़ी राज्य बालिग होने से पहले ही लड़खड़ा रहा है। क्या इसके लिए उतराखण्ड के लोगों के लिए अपने मुकाम हासिल करने के लिए ज्वलंत मुद्दों  पर लडाई लडनी होगी या राज्य की स्थापना के बाद अभी तक राजधानी तक नसीब नहीं हो पा रही है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है सोचिए कि आपके आने वाली पीढियां पुछेगी की उत्तराखंड क्यौं और किसलिए बनाया? मुद्दों को जिंदा रखने की कोशिश जारी है…...... वरिष्ठ पत्रकार शिव प्रसाद सती की कलम से

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