खोदा पहाड़ निकली चुहिया, जो बात जनकवि अतुल शर्मा और लोकगायक नेगी दा ने बहुत पहले कही वहीं बात अब पलायन आयोग ने कही

देहरादून(पंडित चंद्रबल्लभ फोंदणी)- बीते रोज पलायन आयोग ने उत्तराखंड सरकार को अपनी अंतरिम रिपोर्ट सौंपी तो आयोग के साथ-साथ सूबे की सरकार बहादुर भी गदगद हो गई। ये इसलिए कहा जा रहा है कि जिस अंदाज में सरकार ने आयोग की रिपोर्ट का विमोचन किया और उसके बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस की उससे तो यही लगा। जबकि पलायन आयोग की अंतरिम रिपोर्ट ने पहाड़ों के प्रति संजीदा तबके के पैरों तले जमीन खिसका दी है।

अगर वाकई में डेस्क रिपोर्टिंग न हुई हो तो सांख्यकीय लिहाज से पलायन आयोग की रिपोर्ट को नंबर दिए जा सकते हैं। लेकिन आयोग ने पलायन के जो कारण जाहिर किए हैं उन्हें जानकर महसूस हो रहा है कि जैसे पहाड़ खोद कर चुहिया निकली हो।

 ये बात हम इसलिये कह रहे हैं कि जो बात लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी ने बहुत पहले सब्बी धाणी देहरादून जैसा गाना गा कर या जनकवि और राज्य आंदोलनकारी अतुल शर्मा ने सरकार को चेताने के लिए बहुत पहले लिख दिया था कि, विकास की कहानी गांवों से दूर-दूर क्यों, नदी है पास-पास पर ये पानी दूर-दूर क्यों ?..

 राज्य बनने के बाद निर्वाचित सरकारों को बहुत पहले बिना पगार लिए हुए बता दिया था कि राज्य के पहाड़ी जिलों की हालत देहरादून में बैठ कर नहीं सुधरने वाली । जबकि पलायन आयोग ने पगार और दफ्तर लेकर वो बात अब भी सरकार को साहस के साथ नहीं बताई है।

हालांकि आयोग ने नेगी दा और जनकवि अतुल शर्मा के शक को पुख्ता करते हुए सरकार को बताया कि जिन 10 लाख लोगों ने साल 2010 के बाद पहाड़ से पलायन किया है उन्होंने सड़क, स्वास्थ्य, रोजगार और मौजूदा दौर के लिए जरूरी तालीम की वजह से किया है।

आयोग की रिपोर्ट से ये भी पता चलता है कि न तो राज्य की पहली भाजपा वाली अंतरिम सरकार विकास का कोई खाका खींच पाई और न पहली कांग्रेस की निर्वाचित सरकार पहाड़ी जिलों पर ही अपना प्यार लुटा पाई। भाजपा की पहली अंतरिम सरकार राज्य बनने की खुशी में जहां मदहोश रही। वहीं कांग्रेस की पहली तिवारी सरकार ने सहूलियतों के आभाव में जीते पहाड़ों से सिस्टम, अफसर और खुद की दूरी बनाए रखी। लिहाजा अच्छे दिनों की आस टूट गई और सड़क,पानी, स्कूल, अस्पताल और रोजगार की बुनियादी सहूलियतें बदलते परिवेश में मेहनतकश पहाड़ी को मैदानों में खींच लाई।

 लेकिन बड़ा सवाल ये है कि ऐसे दौर में जब सरकारें राज्य की स्थाई राजधानी गैरसैंण से बचने के लिए तमाम बहाने बना रही हों। जिस राज्य में नौकरी करने से ज्यादा कही अहम अधिकांश मुलाजिमों के लिए अटैचमेंट की तिकड़म भिड़ाने की हो। जहां भूगोल को सरकारी नीति और सरकारों की अकर्मण्यता ने सुगम और दुर्गम में बदल दिया हो। जिस राज्य के निर्माण आंदोलन में कोदा-झंगोरा खाएंगे उत्तराखंड बनाएंगे के नारे लगाने के बावजूद निर्वाचित सरकारों ने देहरादून और हल्द्वानी में अपने लिए सुरक्षित सुविधा सपन्न ठिकाने तलाशें लिए हों।

उस दौर में अगर पलायन आयोग की रिपोर्ट के सांख्यिकी आंकड़े उन्ही डरावनी तस्वीरों को पेश कर रहे हों जिन पर राज्य आंदोलनकारियों और राज्य के हितों के लिए संवदेनशील रही जमात ने पहली अंतरिम और निर्वाचित सरकार के रवैए को देखकर बहुत पहले चेता दिया था तो पलायन आयोग ने फिर कोई कद्दू पर तीर नहीं मारा।

तीर तो अब रिपोर्ट आने के बाद सरकार को मारना होगा ताकि खोदा पहाड़ निकली चुहिया न कहा जा सके।  

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